Tuesday, April 16, 2024
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Blog: रूस से हथियार खरीदने में कभी घोटाला क्यों नहीं होता?

भारत मुख्यत: तीन देशों से हथियार और दूसरे सामरिक साजो सामान खरीदता है। रूस से करीब 65 फीसदी, अमेरिका से 15 और इज़राईल से 8 फीसदी। 

IndiaTV Hindi Desk Edited by: IndiaTV Hindi Desk
Published on: October 05, 2018 23:23 IST
Blog: रूस से हथियार खरीदने में कभी घोटाला क्यों नहीं होता?- India TV Hindi
Blog: रूस से हथियार खरीदने में कभी घोटाला क्यों नहीं होता?

1948 में लंदन की एक कंपनी से 80 लाख रुपए में सेना के लिए 2000 जीपें खरीदने का सौदा हुआ, लेकिन सप्लाई केवल 155 जीपों की हुई, इसके बाद ना तो बाकी जीपें आईं और ना ही पैसा वसूल हुआ। 1987 में जर्मनी की एक कंपनी को पनडुब्बी घोटाले के चलते ब्लैक लिस्ट कर दिया गया। बराक मिसाइल का भी नाम आया। फ्रांस से खरीदे गए राफेल को लेकर देश में कांग्रेस बवाल काट रही है। स्वीडन से ली गई बोफोर्स को लेकर आज भी कई सवाल हैं जिनके जवाब नहीं दिए गए। इन सभी सौदों को देखें तो सब के सब यूरोपीय देशों के है, जबकि हम इन देशों से गिना चुना सामान ही खरीदते हैं। हमारे सबसे ज्यादा रक्षा सौदे रूस से होते हैं लेकिन वहां कोई घोटाला सामने नहीं आता, आखिर ऐसा क्यों है। इसे समझने के लिए पहले खरीद की प्रक्रिया को समझना होगा। सरकार आखिर हथियार कैसे खरीदती है? और इसमें किसकी क्या भूमिका होती है इसे जानना ज़रूरी है।

 
जी टू जी यानि गवर्नमेंट टू गवर्नमेंट डील क्या होती है?
एक सरकार सीधे दूसरी सरकार के साथ खरीद प्रक्रिया की शुरुआत करती है। उदाहरण के साथ समझिए, भारत को लड़ाकू जहाज़ों की ज़रूरत थी राफेल को चुना गया, इस विमान को बनाने वाली कंपनी दसाल्ट एविएशन में फ्रांस की सरकार की कोई व्यापारिक दखलंदाज़ी नहीं है। दसाल्ट एविएशन मल्टीनेशनल कंपनी है, जिसका कारोबार 83 देशों में फैला है। भारत सरकार ने पहले 126 लड़ाकू जहाज़ों के लिए दसाल्ट एविएशन से ही बात आगे बढ़ाई, उस वक्त तक फ्रांस की सरकार की इसमें कोई भूमिका नहीं थी। 2015 तक भारत सरकार और दसाल्ट के बीच टेक्नोलॉजी और दूसरी चीज़ों को लेकर जब बात बनने में देरी होने लगी तो, इस डील को जी टू जी फॉर्मेंट में लाया गया। अप्रैल 2015 को मोदी सरकार ने अब तक दसाल्ट से हुई सारी बातों को रोक दिया और सीधे फ्रांस की सरकार को बीच में लाया गया। अब ये डील भारत और फ्रांस की सरकार के बीच हो रही थी, इसमें कोई बिचौलिया नहीं था, एक तरफ भारत की सरकार और उसके अधिकारी थे, तो दूसरी तरफ फ्रांस के। मोदी सरकार ने फ्रांस के साथ 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीदने का करार किया और इसके लिए जो भी प्रस्ताव बना उसी आधार पर भारत और फ्रांस की सरकार के बीच समझौता हुआ। इसका सीधा मतलब ये हुआ कि दसाल्ट के सामान की गारंटी एक तरह से फ्रांस की सरकार ने ले ली साथ ही रुपए पैसे का भुगतान भी सीधे सरकार को ही होगा, ना कि किसी कंपनी के खाते में। 

जी टू सी यानि सरकार और कंपनी के बीच की डील क्या होती है?
इस डील की शुरुआत कोई भी कर सकता है। सरकार को ज़रूरत है तो वो करे या फिर कंपनी अपने सामान को सरकार के सामने रखे। इस डील में कंपनी के प्रतिनिधि होते हैं जो इस कोशिश में रहते हैं कि सरकार तक अपने सामान को पहुंचाने के लिए उस देश के किसी प्रभावी शख्स की मदद ली जाए। इसी शख्स को रक्षा सौदे में बिचौलिया कहते हैं। भारत में बिचौलिये की कोई आधिकारिक भूमिका नहीं है लेकिन दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। बिचौलिये को कंपनी भी पैसा देती है और सरकार भी। 

रूस के साथ हथियार खरीद में कभी घोटाला क्यों नही होता? 
इस सवाल का जवाब जानने से पहले भारत और रूस के संबधों को सरसरी तौर पर जान लीजिए। भारत मुख्यत: तीन देशों से हथियार और दूसरे सामरिक साजो सामान खरीदता है। रूस से करीब 65 फीसदी, अमेरिका से 15 और इज़राईल से 8 फीसदी। भारत और रूस के संबधों को दुनिया कूटनीति की भाषा में स्पेशल रिलेशनशिप यानि विशेष संबध का नाम देती है। ये रिश्ता ठीक वैसा ही है जैसे अमेरिका और ब्रिटेन के बीच है। स्पेशल रिलेशनशिप का नाम 1946 में ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने दिया था और उसके बाद ये मशहूर हो गया। 
1955 के बाद से ही रूस हमें थोड़ा बहुत हथियारों की सप्लाई शुरु कर चुका था लेकिन इन रिश्तों में असली गहराई आई 1962 में जब रूस ने न केवल मिग-21 भारत को देने का फैसला किया। रूस ने केवल मिग-21 विमान ही नहीं दिए बल्कि चीन से अपने रिश्ते खराब करते हुए मिग की टैक्नोलॉजी भी भारत को देने के लिए तैयार हो गया। 1971 की लड़ाई में अमेरिका जब पाकिस्तान की तरफ से खड़ा होने की कोशिश करने लगा तो रूस ने भी अपना जंगी जहाज भारत के समर्थन में रवाना कर दिया। इस बीच रशिया के टुकड़े हुए लेकिन भारत और रूस गहरे दोस्त बने रहे। साल 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी और ब्लादिमीर पुतिन के बीच ऐतिहासिक सामरिक समझौता हुआ जिसने दोनों देशों के रिश्तों को और ऊंचाई प्रदान की। 
रूस की हथियार कंपनियों पर वहां की सरकार का नियंत्रण है, और किसी भी तरह की डील भी सरकार के ज़रिए ही होती है, इसलिए इसमें घोटाले की आशंका नहीं है। लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) गुरदीप सिंह का मानना है कि भारत और रूस के बीच में जिस तरह का विश्वास है उसको देखते हुए भी कोई घोटाले की कल्पना नहीं कर सकता। जनरल गुरदीप सिंह ये भी कहते हैं कि रूस की सरकार जानती है कि डील की कितनी बातें मीडिया को बतानी हैं और कितनी छिपानी हैं, इसलिए भी अगर कुछ अंदरखाने हुआ हो तो वो बाहर नहीं आता।
 
यूरोपीय देशों के साथ समस्या क्यों होती है?
यूरोप में कंपनियों को सरकार दिशा निर्देश तो दे सकती है लेकिन नियंत्रण नही रख सकती। जिसे भी हथियार खरीदने होते हैं वो सीधे कंपनी से बात करता है बशर्ते की उस देश ने खरीददार पर किसी तरह का प्रतिबंध न लगा रखा हो। ये करीब करीब वैसा ही है कि आप किसी मॉल में जाएं और अपनी पसंद का सामान खरीद कर लाएं। बोफोर्स के वक्त भी यही हुआ, सीधे स्वीडन की कंपनी से बात की गई, उसमें बिचौलिए भी थे, खरीद भी हुई और सप्लाई भी। बोफोर्स की डील में कमीशन का खुलासा हो गया और भारत की राजनीति का नक्शा बदल गया। बोफोर्स की गुणवत्ता पर किसी ने अंगुली नहीं उठाई लेकिन कमीशन सबको अखर गया। जनरल गुरदीप सिंह बताते हैं कि कंपनी के साथ डील में सीक्रेसी का आभाव रहता है, कई तरह के लोग शामिल होते हैं जिसकी वजह से बातें बाहर आ जाती हैं और फिर उन बातों का इस्तेमाल राजनीतिक पार्टियां अपने अपने हिसाब से करने लगती हैं। राफेल की डील सीधे कंपनी के साथ नहीं है इसीलिए मोदी सरकार बार बार ये कह रही है कि इसमें घोटाला संभव ही नहीं क्योंकि ये सीधे सरकार के बीच की बात है। 
कुल मिलाकर इस तरह के सौदे लचर प्रक्रिया और भरोसे की कमी का शिकार हो जाते हैं। यही वजह से है कि सरकारें फूंक फूंक कर कदम रखती हैं, या फिर फैसला ही नहीं लेती और इसका खामियाज़ा देश की सेनाओं को उठाना पड़ता है।

दिनेश काण्डपाल, इंडिया टीवी में सीनियर प्रोड्यूसर हैं और इस लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं।

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